साहित्य जीवन
मन से कलम तक
पहचान
जब होती हूँ
पंख
उड़ जाते हो थामकर मुझे
नीले विस्तार में
जब होती हूँ ख्वाब
भर लेते हो अपनी आँखों में
जब होती हूँ बूंदें
सागर बन समेट लेते हो
अपनी आगोश में
जब होती हूँ सुबह
भर देते हो
मेरी हथेलियों में
उजास के फूल
जब होती हूँ
मैं अपनी पहचान
तोड़ लेते हो मुझसे
सारे पहचान के नाते ...
अनुप्रिया
बदलते हुए
खबर है तुम्हें
सब बदल गया है बस मेरे लिए
सब माने सब
घर ,परदे ,सीढियां
खिड़कियाँ ,सड़कें
चेहरे
वही चेहरे
जो आसपास होते थे मेरे
नहीं होंगे अब
और हाँ
मैंने खो दिया है अपना भी चेहरा
माँ के बक्से से निकालना होगा
एक नया और जिम्मेदारी भरा चेहरा
जिसे ओढ़कर
निकलना है
कल ही
अपने इस प्यारे घर से
और चल पड़ना है
बदलते हुए रास्तों पर
तुम ,साथ तो दोगे न?
अनुप्रिया
बड़ा होने के लिए
ऊँची-ऊँची चार दीवारों से घिरी,
भव्य गगन-चुम्बी अट्टालिकाओं का क्या लाभ ?
जहां ,संवेदनाओं के कोमल महकते फूलों के लिए ,
जगह ही न हो ;
सोने-चांदी से सुसज्जित उस सुन्दर डियोडी का क्या प्रयोजन ?जिसके दर से ,कोई दरवेश बिना दुआएं दिए खाली झोली लिए मुड जाये ,
अम्बर छूती गुम्बदों के नीचे भरे गोदामों का क्या फायदा ?
जिनकी मुंडेर पर बैठी चिड़िया भूखी ही उड़ जाये ;
और मुट्ठी भर दाने फैंकने के लिए, जिनके हाथ कांपने लगें ;
ऐसी गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से तो वह कुटीया ही महती होती है ,जहाँ संवेदनाओं के कोमल फूल कुम्लाहते नहीं दरवेश बिना दुआएं दिए खाली नहीं मुड़ते;और चिड़िया मुंडेर पर भूखी नहीं फुदकती ,
सच तो यह है मेरे मित्र ,घर बड़ा होने से कोई बड़ा नहीं होता ,
दिल बड़ा होना चाहिए.....||अशोक दर्द