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मरब्बा

पंडित जी सुना है सरकार हमारे इलाके में डैम बनाने जा रही है, घसीटू बोला।

''हाँ कुछ-कुछ ऐसा मैंने भी सुना है।

अगर यहाँ डैम बन गया तो हम लोगों के तो दिन फिर गए।`` घसीटू खुशी से अपना कुप्पा सा मुँह फुलाकर बोला।

ये दोनों लँगड़े हलवाई की दुकान पर बैठे चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे कि सामने से पंचायत प्रधान ठाकुर लच्छीयाराम भी मूँछों को ताव देते हुए कारिंदों के साथ आते दिखे तो बिहारी पंडित हाथ जोड़ बोला ''जयराम जी की प्रधान जी, आइये चाय पीजिये।``

''ओ जय-जय पंडित जी, क्या महफिल लगी है।``

''कुछ नहीं प्रधान जी सुना है सरकार यहाँ कोई बड़ा डैम बना रही है। आपको तो सरकार की सारी खबर रहती है, क्या यह सच है?``

बीच में लंगड़ा हलवाई भी बोला, ''प्रधान जी अगर यहाँ डैम बन गया तो हमारा क्या होगा, आप ही सरकार को समझाओ कुछ।``

''ओए, हलवाई तूं न घबरा मैं यहाँ डैम नहीं बनने दूँगा। विधायक जी थोड़ा जोर डाल रहे हैं, मैंने कह दिया है लोगों की जमीन के बदले दुगुनी जमीन दो और घरों के बदले दुगुना पैसा तब विचार होगा। तुम लोगों ने मुझे प्रधान चुना है मैं तुम्हारा घाटा न होने दूँगा। बस जैसा मैं कहूँ वैसा ही करना।`` इतने में जुबली हाईवे की बस आकर रुकी और प्रधान जी अपने कारिंदों के साथ उसमें बैठ चले गए।

ठाकरां दा बेहड़ा गाँव में ठाकुर ही नहीं ब्राह्मणों की तादाद भी ज्यादा थी। अन्य जातियों के लोग भी यहाँ रहते थे। लेकिन ठाकुरों व ब्राह्मणों का यहाँ बाहुल्य था। यह गाँव ब्यास नदी के किनारे बसा था। यहाँ पर बिजली के प्रोजैक्ट का सर्वे काफी पहले हुआ था और अब लोगों से जमीन ली जा रही थी। बिहारी पंडित की चिंता बढ़ने लगी क्यों कि उसकी यजमानी वाले सभी के गाँव इस डैम में समाने जा रहे हैं। उधर जयलाल का भी यही हाल है। उसकी कई बीघा जमीन ब्यास के किनारे थी, जो सोना उगलती थी। गाँव के बू़ढे बोटी हरिया को इस मिट्टी से जुडी यादों से जुदा हो जाने का दुख था।

 

आज इन सभी दस गाँवों के लोगों को माल महज़्मे ने पंचायत घर में बुलाया था। तहसीलदार साब के साथ कानूनगो, पटवारी, प्रधान, पंचायत सैक्रेटरी तथा कुछ और अफसर भी थे।

 

तहसीलदार साब ने बात शुरू की, ''भाईयों भारत सरकार यहाँ पर बिजली का बहुत बड़ा प्रोजैक्ट बनाने जा रही है। जिसके डैम में आपके गाँव समा जाएँगे। सरकार आपको जमीन के बदले राजस्थान में दुगनी जमीन के मरब्बे देगी और घरों व मवेशीखानों के बदले अच्छा पैसा। आप सब लोगों को मैं आज नोटिस देने आया हूँ। जिस-जिस का नाम पुकारा जाए वह आगे आता जाए।``

''हमें अपनी मिट्टी से जुदा करने का हक आपको हरगिज नहीं है। क्या आज का दिन देखने के लिए हमने आजादी हासिल की थी। ऐसा जुल्म मत करो।`` बू़ढे बोटी हरिये ने भरे गले से यह बात कही। इतने में जयलाल भी बोल उठा, ''सरकार, ऐसा मत करो हम दिनरात मेहनत कर अपने पुरखों की जमीन का अन्न खा रहे हैं। इसे हमसे न छीनो।`` भाई तुम्हारे लिए तो यह खुश होने की बात है। तुम्हें अपनी जमीन जायदाद का दुगना मिलेगा, जिससे तुम लोगों के तो दिन बदल जाएँगे। `` कुर्सी पर बैठे गंजे अधेड़ ने कहा। यह प्रौजेक्ट कंपनी का नुमाइंदा हरीश कपूर था।

''खाक दिन फिरेंगे, हमारे रीति-रिवाज, मंदिर यहाँ की संस्कृति और पूर्वजों के बरसेले झील में दफन होकर रह जाएँगे। पितरों की आत्माएँ हमें जीने नहीं देगी,`` बिहारी पंडित ने इतने जोश में कहा कि सब लोगों ने उसकी हाँ में हाँ मिलाई।

लोगों के उग्र रूप को देख तहसीलदार ने प्रधान जी के कान में कुछ कहा और वह सबको शांत करते हुए बोले, ''सुनो भाईयों सरकार हमारे हितों को ध्यान में रखकर यह काम कर रही है तुम लोग कानूनगो जी से अपने-अपने कागज ले लो।``

लोगों के तीखे प्रश्नों ने अब प्रधान जी को घेरा लिया। लेकिन वह अपनी मीठी बातों से लोगों को सतुंष्ट करने में सफल रहे। राजस्थान में इंदिरा नहर के साथ मिलने वाले मरब्बे के लालच में सब लोग आ गए। प्रधान जी ने बताया कि मरब्बे में होने वाली फसल का हर साल पचास-साठ हजार रुपया घर बैठे मिलेगा।

 

''घसीटू, सरकार ने पैसे तो दिए नहीं यह कागज पकड़ा दिया,`` अनपढ़ बेलीराम ने पूछा।

''मुआ, ऐ नोटिस है। इसके बाद तेरी जमीन सरकार अपने कब्जे में लेगी। पैसे बाद में मिलेंगे।``

 

बिहारी पंडित गुस्से में पैर पटकता हुआ घर पहुँच गया। उसकी पत्नी बशंभरी ने उसे पानी दिया और हाथ-मुँह धुलवाया।

''अजी, किसी से झगड़ा हो गया क्या।``

''नहीं सरकार ने हमें अपनी जमीन-जायदाद छोड़ने के नोटिस दे दिए हैं। मैं तुम्हें व बच्चों को लेकर कहाँ जाऊँगा। चिंता न करो सभी लोग जा रहे हैं, हम भी कहीं चले जाएँगे।``

''बशंभरी, तेरा दिमाग खराब है। मेले घर का चूल्हा मेरी यजमानी से चलता है। दूसरी जगह एकदम यजमानी नहीं मिलेगी। दूसरा काम मुझे कोई आता नहीं है।``

 

दोनों पति-पत्नी अब भविष्य की चिंता में खो गए। गाँव के बाकी घरों में भी लोगों की चिंता का कारण यही था। मगर मरब्बे से होने वाली आमदनी की बात सोचकर यह लोग मन को तसल्ली दे रहे थे। ठाकुरां दा बेहड़ा गाँव की चौपाल व लंगड़े हलवाई की दुकान पर सब लोग एक-दूसरे से बिछु़डने की चर्चाएँ करने लगे। कुछ दिनों बाद तहसीलदार व प्रौजेक्ट के अफसर सबको मुआवजे की पहली किश्त बाँट कर चले गए। पैसा पाकर बिहारी पंडित को खुशी हुई लेकिन घर पहुँचते ही इस माटी से बिछु़डने के गम ने उसे रुला डाला। किसी ने इस पैसे से साहूकार का कर्जा उतारा तो किसी ने बच्चों को किताबें व वर्दी खरीदकर दी। घसीटू पैसे लेकर सीधा किशोरी लाल की देसी शराब की भट्ठी में पहुँच गया।

''घसीटू, तुझे तो बहुत पैसे मिले होंगे। यार एक पैग तो पिला दें,`` धर्मू ने बहकते हुए कहा।

''लाला, एक अधा दे और कुछ मछली फराई कर दे, दो गिलास भी देना।``

घसीटू ने दो पैग डाले और एक धर्मू की तरफ बढ़ा दिया। घसीटू ने जल्दी से बोतल में बची शराब का पटियाला पैग बनाया और गटक गया।

धर्मू ने बहकते हुए पूछा, ''यार तुम लोगों ने सरकार से पैसे तो ले लिए लेकिन रहोगे कहाँ। मैं तो डैम के किनारे कहीं पर झोपड़ी बनाकर रह लूँगा।``

धर्मू की गाँव में न तो कहीं जमीन है और न ही उसका परिवार। दिन भर मेहनत-मजदूरी करता और शाम को शराब पी लेता। नाम के लिए पास के गाँव में उसके चाचा-चाची थे लेकिन वह बचपन से ही अनाथ था। उसकी माँ उसे जन्म देते ही मर गई और जब वह सात साल का था तो बाप इसी ब्यास में बह गया। गाँव के लोगों के छोटे-बड़े काम करके वह पला था।

''धर्मू हम सब कुछ ही दिनों में बिछु़ड जाएँगे न यह जमीन हमारी रहेगी और न ही ब्यास का पानी। धर्मू तूँ खुशनसीब है जो यहीं रहेगा। हम परिवार वालों को तो रोजी की गर्ज से कहीं न कहीं तो बसना ही होगा।``

दोनों अब गले लगकर रोने लगे थे।

 

बिहारी पंडित ने सुबह बस पकड़ी और अपने मामा के गाँव हटली में पहुँच गया। वह यहाँ पर बिक रहे एक मकान व एक बीघा जमीन के सौदे के लिए आया था। हटली के पटवारी व मामा की मदद से सौदा पक्का हो गया। उस रात वह मामा के यहाँ रुक गया। अगले दिन तहसील जाकर बिहारी ने सारे काम भी निपटा लिए। इसी गाँव में एक और मकान बिक रहा था, सो बिहारी ने अपने दूर के रिश्तेदार लंगड़े हलवाई को उसके बारे में बताया।

''बिहारी, तूँ बस रहा है तो वह गाँव अच्छा ही होगा। वहाँ मेरी दुकानदारी चल पड़ेगी न।``

''हाँ, क्यों नहीं। सब स्टॉप पर दुकाने हैं। तुम कल हटली जाकर मामा जी से मिल लेना वह सौदा करवा देंगे।``

 

धीर-धीरे सब लोग अपना-अपना सामान समेट कर गाँव छोड़कर जाने लगे। सबने अपनी सहूलियत से नए ठिकाने ढूँढ लिए थे। लेकिन पुरखों की इस जमीन से जुदा होने का गम उन्हे रुला रहा था। धर्मू रोते-रोते सबका सामान ट्रक में लाद देता था। उसे सरकार से पैसे व मरब्बे की चाह नहीं थी वह चाहता था कि यह गाँव न उजड़े। उसे गाँववालों से बिछु़डने का गम साल रहा था। आज बिहारी पंडित का परिवार भी जा रहा था। उन्हें विदा करने के लिए बहुत कम लोग थे। क्यों कि ज्यादातर लोग पहले ही गाँव छोड़ चुके थे। बशंभरी गाँव की महिलाओं को गले मिलते हुए सुबक रही थी। बिहारी ने ट्रक में बैठकर आखिरी नजर अपने घर पर डाली तो उसकी आँखे भर आईं। ट्रक थोड़ा आगे पहुँचा तो भगवान शिव के मंदिर को देख उसने अंतिम अरदास की। गाँव के टियाले पर आज कोई नहीं बैठा था, लंगड़े हलवाई की दुकान भी बंद थी, वह भी यहाँ से निकलने की तैयारी में लगा हुआ था। जिस मिट्टी को बिहारी के पुरखों ने कर्मभूमि बनाया था, आज वह उससे सदा के लिए नाता तोड़कर जा रहा था। इस मिट्टी में मिली उसके पुरखों की आत्माओं की आवाज सारे सफर में उसके कानों में गूँजती रही।

 

बिहारी पंडित ने हटली में यजमानी बनाने की बहुत कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हो सका। लंगड़े हलवाई को बस स्टॉप पर दुकान मिल गई थी। उसका काम अच्छा चल निकला। बिहारी पंडित के बेटे बड़े थे सो पढ़ाई बीच में ही छोड़ काम धंधे की तलाश में जुट गए। बिहारी पंडित ने तंग आकर घोड़े पाल लिए और सामान बगैरह ढोने का काम करने लगा। जैसे-तैसे परिवार की रोजी चलने लगी। छप्पन भोग करने के आदी बिहारी को अब रूखी-सूखी रोटी ही नसीब हो रही थी। हटली में पहले ही हरिचंद पंडित की यजमानी थी सो लोग उसे किसी हवन तक में भी नहीं बुलाते थे। सरकार लंबे समय से मरब्बे देने के आश्वासन दे रही थी, लेकिन कहाँ इतने लोगों को जगह दी जाए यह योजनाएँ फाईलों में दबी पड़ी थी। हाथ में पैसा न होते हुए भी बिहारी ने कर्ज उठाकर बड़ी बेटी रानी के हाथ पीले कर दिए। उसे आस थी कि मरब्बे मिलते ही पहली फसल को बेचकर संतु लाला के कुछ पैसे चुका देगा, बाकी पैसे धीरे-धीरे दे देगा। आखिर तीन-चार साल बाद सरकार ने सबको राजस्थान के अनूपगढ़ में मरब्बे दे दिए। बिहारी भी मुरब्बे का कब्जा लेने लंगड़े हलवाई के बेटे जोगिंद्र के साथ अनूपगढ़ पहुँच गया। वहाँ अधिकारियों को कागज दिखाने के बाद उन्हें अपने-अपने मरब्बे दिखा दिए गए। दोनों मरब्बों में मूंगफली की फसल खड़ी थी, और मिट्टी के कोठे भी बने हुए थे।

 

''ताऊ जी यहाँ तो पहले से किसी कब्जा है।``

जोगिंद्र की बात सुन बिहारी ने साथ आए सरकारी अफसर को कहा, ''बाबू जी हमें कब्जा दिलवा दो।``

''हमने आपको मरब्बा दिखा दिया बस, अब खुद इन जाटों से बात कर लो। इनसे कब्जे छु़डाने की काफी कोशिश हम कर चुके हैं। बेहतर होगा कि तुम इन्हें अपने खेत ठेके पर दे दो। यह सलाह देते हुए सरकारी अफसर वहाँ से चलता बना।``

बिहारी ने कोठे के बाहर से डरते हुए आवाज लगाई तो लंबा-तगड़ा आदमी बाहर निकला, क्या है भई।

''जी, यह मरब्बा मुझे सरकार ने दिया है मेरा नाम बिहारी है। हिमाचल से आया हूँ।``

''आओ जी, बैठो मेरा नाम कर्म सिंह है। अरी धन्नो ठंडा पानी तो ला।``

''आप कब से यहाँ पर फसल उगा रहे हैं।``

''कई साल हो गए जी। अब आपके नाम यह जमीन हो तो गई है। लेकिन आप तो हिमाचल ही रहेंगे और जमीन ठेके पर देंगे। हमसे ही ठेका कर लो।``

कर्म सिंह की बातें सुनकर बिहारी डर गया।

''ठीक है जी आप ही जोतो इन खेतों को एक साल में दोनों फसलों का कितना हिस्सा दोगे।``

''आधी फसल तुम्हारी आधी हमारी साल बाद आकर हिसाब ले लिया करो या फिर हम पैसा भेज दिया करेंगे।``

''ठीक है कर्म सिंह जी, इस फसल का हिस्सा तो आप आज ही दे दो।``

''बिहारी जी, क्या बात करते हो। तुम्हें जमीन आज मिली है और यह फसल मैंने पहले भी बोई है। हिस्सा तो अब अगली फसल का मिलेगा।``

कर्म सिंह इस बार गुस्से में बोला, '' तो बिहारी ठीक है,`` कहकर वहाँ से निकल गया। लंगड़े हलवाई के मरब्बे का भी यही हाल था सो जोगिंद्र ने भी फसल का ठेका दे दिया।

 

साल बीत गया लेकिन न तो बिहारी को उसकी फसल का हिस्सा मिला और न ही लंगड़े हलवाई को। अनूपगढ़ से चिट्ठी आई। जिसमें जाटों ने लिखा था कि मौसम की खराबी से फसल नष्ट हो गई सो अगली फसल कटते ही हिस्सा भेज देंगे। चिट्ठी पढ़ते ही बिहारी का चेहरा फक पड़ गया। संतु लाला को पैसे लौटाने के लिए उसे यही एक उम्मीद थी। उसने एक घोड़ा लिया और उसे बाजार जाकर बेच आया। जो पैसे मिले उसे संतु लाला को दे आया। लंगड़े हलवाई ने मरब्बे को बेचने का मन बना लिया। जो दुकान उसने किराए पर ली थी वह बिक रही थी, लेकिन दाम बहुत ज्यादा थे। इसलिए लंगड़ा हलवाई मरब्बा बेचना चाहता था। वह अपने बेटे के साथ अनूपगढ़ पहुँच गया। वहाँ कई दिन रहने के बाद भी उसे मरब्बे का कोई खरीददार नहीं मिला। क्यों कि जाटों से कब्जे छु़डाना किसी के बस में नहीं था। इसलिए कोई ऐसा सौदा करना नहीं चाहता था। आखिर जाटों से फसल का हिस्सा लेकर वह लौट आए। जाटों ने फसल का हिस्सा बहुत कम दिया था। लंगड़ा हलवाई मायूस होकर सरकार को कोसने लगा। उसने दुकान खरीदने के लिए पेशगी दे दी थी और कुछ दिन में बाकी पैसा देने का इकरारनामा लिखा था। अब पैसा न देने पर उसकी पेशगी की रकम तो डूबेगी ही और साथ ही दुकान का मालिक उसे किसी और को बेच देगा।

 

फसल के आधे हिस्से के रुपये में पाँच सौ रुपए पाकर बिहारी पंडित का चेहरा गुस्से से तमतमा गया।

''तुझे उनसे पूरे पैसे वसूलने चाहिए थे। पता है एक फसल दस हजार रुपए से कम नहीं जाती।``

''बिहारी उन जाटों से ज़ैन मुँह लगाए। सुना है अपना रसमसिंह उनसे भिड़ गया और आज तक उसका कुछ पता नहीं है।``

''ऐसी की तैसी उनकी, अगली फसल का हिस्सा लेने में खुद जाऊँगा।`` यह कहता हुआ बिहारी पैर पटकता हुआ वहाँ से निकल गया।

 

जिस मरब्बे को लेकर इन दोनों ने सुनहरे भविष्य की सोची थी वह अब इनके लिए कभी हकीकत में न बदलने वाले सपन बन गए थे। लंगड़े हलवाई को नए मालिक ने दुकान से बाहर कर दिया था। वह शहर जाकर मिठाई की बड़ी दुकानों पर दिहाड़ी पर मिठाईयाँ बनाने लगा था। उसका बड़ा बेटा जोगिंद्र शादी-त्यौहारों में खाना बनाने का काम करने लगा। उधर संतु लाला ने तकाजा शुरू कर दिया। जिससे बिहारी परेशान रहने लगा। ठाकुरां दा बेहड़ा में इन दोनों परिवारों की रसोई दिन भर चलती थी। हर आने जाने वाले को यह खाना खिलाकर भेजते थे। लेकिन यहाँ रूखी-सूखी रोटी उनकी किस्मत बन गई। पुराने मकानों के स्लेट टूट गए थे और लकड़ी को दीमक आ रही थी। मगर मरम्मत के लिए बिहारी व लंगड़े हलवाई के पास पैसे नहीं थे। बिहारी ने अपनी पत्नी बिशंभरी के सोने के बड़े कंगन प्यारू सुनियारे को बेचे और कुछ पैसे संतु लाला को देकर उसका मुँह बंद किया। कुछ पैसे उसने अनूपगढ़ जाने के लिए बचाकर रख लिए।

 

फसल कट गई थी। इसलिए बिहारी अनूपगढ़ रवाना हो गया। ट्रेन में बैठा वह सोच रहा था कि इस बार सीधे बात करूँगा कर्म सिंह कर्म सिंह जाट से। ट्रेन ब्यास से गुजरी तो बिहारी खिड़की से अपना गाँव देखने लगा। वहाँ उसके गाँव का कोई नामोनिशां नहीं था। पानी ही पानी था हाँ ऊंचे पहाड़ अपनी भी अपनी मौजूदगी की हाजिरी दे रहे थे। ट्रेन थोड़ी आगे पहुँची तो किनारे पार बड़ी-बड़ी इमारतें बनी हुई थीं जो प्रौजेक्ट कंपनी की थी। तीन-चार साल में ही सारा नक्शा बदल गया था। पंजाब व और राज्यों के लोग डैम पर काम करते थे। प्रौजेक्ट क्षेत्र अब निकल गया था और भरमाड़ रेलवे स्टेशन आ गया था। ठाकुरां दा बेहड़ा गाँव के लोगों को रेल पकड़ने के लिए इसी स्टेशन पर आना पड़ता था। यहाँ पठानकोट से आने वाली रेल क्रॉस होती थी। सो गाड़ी यहाँ पर पाँच मिनट रुकती थी। बिहारी स्टेशन पर उतर गया। उसने नल से पानी पिया और घूमने लगा। अचानक उसे अपने गाँव के जयलाल दिखाई दिया। ठाकुरां दे बेहड़ा में खेतीबाड़ी में जी-तोड़ मेहनत कर जयलाल अच्छी कमाई कर लेता था। मगर यह क्या? वही जयलाल आज स्टेशन पर हाथ में टोकरी लिए फल बेच रहा था। बिहारी को झटका लगा।

 

''जयलाल, यार तूं यहाँ कैसे। तूं तो कहता था कि राजस्थान जाकर मरब्बा संभालेगा और वहीं अपनी खेतीबाड़ी जमाएगा।``

''जयराम जी की पंडित जी, आज आपको सामने देखकर दिल खुश हो गया। अब तो अपने गाँव का कोई-कोई ही मिलता है। सब लोग दूर-दूर बस गए हैं। मेरी हालत तो आपने देख ही ली है। मरब्बा तो मेरे जीवन में कहर बरपा गया।``

''आप अपनी सुनाईये घर में सब ठीक हैं बच्चे तो काम-धंधे पर लग गए होंगे।``

जयलाल, अपनी मिट्टी से जुदा होने के बाद जिंदगी बोझ सी लगने लगी है। बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छु़डाकर उन्हे खराद का काम सीखने के लिए लुधियाना भेज दिया। रानी की शादी कर दी बस। तूं सुना यार तूने इस बीच क्या किया?

''आपसे क्या छुपाना पंडित जी, मैं परिवार के साथ सरकार से मिले पैसे व सारा सामान समेट कर अनूपगढ़ चला गया।``

 

वहाँ मेरे मरब्बे पर जाटों का कब्जा था। सरकार व पुलिस के कई चक्कर काटे लेकिन जाटों ने मरब्बे से कब्जा नहीं हटाया। हम किराये के मकान में रहे। आखिर एक बिचौलीये की मदद से कुछ रुपया जाटों को दिया फिर उन्होने मरब्बा छोड़ा। मिट्टी का कोठा बनाकर मैं वहाँ रहने लगा। खेत पर काम करते हुए लाजो को गर्मी की तेज लू लग गई। आठ-दस दिन में वह मर गई। जो पैसे प्रौजेक्ट वालों ने दिए थे वह अब खत्म हो गए थे। मुँगफली की फसल को खरीदने के लिए कोई ग्राहक हमें नहीं मिल रहा था। क्यों कि हम वहाँ नए थे और सब आढ़ती जाटों के साथ थे। बेटे मदन ने एक आढ़ती के साथ घाटे में ही सौदा किया मगर जाटों ने झगड़ा कर दिया। मेरे मदन को उन्होने मार डाला। पुलिस ने रपट तक दर्ज नहीं की। बेटी कृष्णा को जाटों के बेटे छे़डने लगे। मैं डर गया और रातोंरात सब कुछ वहीं छोड़कर वापिस आ गया। आकर गाँव गया तो वहाँ मेरा आधा घर पानी में समा चुका था। कुछ दिन रिश्तेदारों के यहाँ गुजारे। अब यहीं स्टेशन के पास किराये के एक कमरे में रहता हूँ। सारा दिन स्टेशन पर फल वगैरह बेच लेता हूँ। कुलीगिरी भी कर लेता हूँ। जयलाल की आँखों से आँसू छलकने लगे जिन्हे देख बिहारी पंडित भी रो पड़ा।

 

गार्ड ने सीटी बजा दी थी और रेल का हार्न भी गूंजने लगा सो बिहारी वापिसी में फिर मिलने की बात कर गाड़ी में बैठ गया।

 

अनूपगढ़ में पहुँचते ही बिहारी सीधा कर्म सिंह जाट के पास पहुँच गया। पहले तो दोनों में फसल के हिस्से को लेकर काफी बहस हुई फिर बिहारी ने साफ कह दिया कि वह मरब्बा बेच रहा है तुझे लेना है तो कल दो लाख रुपये लेकर सराय में आ जाना। कर्म सिंह का गुस्सा सांतवे आसमान पर पहुँच गया। वह रात को ही अपने बेटों के साथ सराय में पहुँच गया और बूढे बिहारी पंडित की बेदर्दी से पिटाई कर दी। बिहारी बेहोश हो गया। सुबह सराय वालों ने हकीम जी को बुलाया और उसे दवा दिलवाई। सराय के मैनेजर ने बिहारी को समझाया कि जाटों से उलझना ठीक नहीं है, बेहतर होगा तुम घर लौट जाओ। हकीम जी के ईलाज से भी वह ठीक नहीं हो सका। वह चलने-फिरने में भी लाचार हो गया। सो मैनेजर ने उसके बड़े बेटे रविंद्र को लुधियाना में तार भेज दिया। रविंद्र ने सारी बात सुनी और बाप को साथ गाँव ले गया। भरमाड़ रेलवे स्टेशन पर उनकी गाड़ी दोपहर को पहुँची बिहारी की आँख लगी हुई थी। जयलाल केले,ले लो कहता डिब्बे में चढ़ गया। वह केले बेचने लगा। उसकी नजर बिहारी पर पड़ी।

'' पंडित जी आ गए क्या हुआ।``

''हाँ, जयलाल। ``

''क्या हुआ पंडित की तबीयत तो ठीक है?``

''मरब्बे ने मेरी भी आधी जान ले ली है।`` बिहारी का चेहरा पीला पड़ गया था और आँखे सफेद। बिहारी ने अनूपगढ़ में घटी सारी घटना जयलाल को सुनाई। रविंद्र बाहर पानी लेने गया था वह भी सीट पर बैठ गया। गाड़ी चलने लगी सो जयलाल तेजी से उतर गया। गाँव पहुँचने के बाद बिहारी बिस्तर से लग गया। उसने अपने तीनों बेटों को अनूपग़ढ़ के मरब्बे को भूल जाने की सलाह दी पूरा एक साल बिस्तर पर रहने के बाद वह मर गया। संतु लाला का कर्ज़ मुरने की तरह खड़ा रहा।

 

                                                                                                                                                                                    डा. राजीव पत्थरिया 

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