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दो वक्त की रोटी के लिए लड़ता रहा


दो वक्त की रोटी के लिए लड़ता रहा

कभी यहां तो कभी वहां भटकता रहा।

तंग दीवारों के साये में कटती रही जिंदगी

खुली सांस लेने को ये दिल मचलता रहा।

पैसे वालों की सियासत के चंगुल में जकड़ा

हर पल छूटने की कोशिश करता रहा। सबको अपना समझ लगाता रहा गले

पर दोस्त बन वो रकीब जकड़ता रहा।

चला गया इस जहां से तो मिला सुकून

जीते जी तो सागर हर पल ही मरता रहा।

      राकेश पत्थरिया 'सागर

अपना सा लगे तेरा शहर इस तरह

बिन तेरे गुजर रहा जिंदगी का सफर इस तरह 

जैसे चंद ख्वाहिशें हो गई बेअसर इस तरह।

शबे हिजरा में चल रहा है उन यादों का दौर 

आखिर इन गमों को घेर ही गई नजर इस तरह।

इन दीवारों से बहलता नहीं है दर्दे-ए-दिल

जला है जिस्म तन्हाइयां छोड़ रही शरर इस तरह।

कभी नहीं पहुंच पाया मंजिल-ए-इश्क तक

बढ़ते कदमों पे बरपता रहा कहर इस तरह।

कभी घड़ी दो घड़ी चैन से रहने न दिया 

फिर भी अपना सा लगे तेरा शहर इस तरह।

चंद यादों के लम्हे ही हैं दौलत इस जहां की

रग रग में इश्क ही इश्क का है बसर इस तरह।

उन निगाहों को देखा तो बढ़ती ही गई प्यास 

और वो 'सागर को दे गया जहर इस तरह।

                  राकेश पत्थरिया 'सागर

 

सब आंख मोड़ जाते हैं

बड़े इतमीनान से भरोसे को तोड़ जाते हैं।

अकसर अपने ही सरे राह छोड़ जाते हैं॥

किस पर भरोसा करें, किस पर ऐतबार।
वक्त पड़ता है , सब आंख मोड़ जाते हैं॥

न पांव सर पे रख, न ज़मीं से उठा ।
राह - ए -ज़िन्दगी में कई मोड़ आते हैं॥

नहीं सीखते मुह्ब्बत,चाहे लाख सिखाओ।
तोड़ने के दिल सब को तौर आत हैं ॥

नाज़ुक होते हैं रिश्ते 'रत्न',सम्भल के निभाया कर।
ज़ख्म भर जाते हैं लेकिन,निशान छोड़ जाते हैं ॥ 
सतीश 'रत्न'

उडऩे को आकाश नहीं है

पंख तो उसके पास भी हैं

उडऩे को आकाश नहीं है

वर्तमान की बात है यारो
ये कोई इतिहास नहीं है
हुए चार रोज छुए दाना
किंतु ये उपवास नहीं है
इक इक पसली दिख रही है
हड्डियों पर कहीं मांस नही है 
हम भूखे लाचार हैं लेकिन
ये मसला कोई खास नहीं है
सुबह आने से रोक सके
रात की ये विसात नहीं है
सतीश रत्न

भूखे को पाठ सब्र का पढ़ाया जा रहा है 

देश इक्किसवीं सदी में ले जाया जा रहा है।
हमें फुटपाथ से उठाया जा रहा है ॥

हक़ मांगना दुश्वार हो गया है और ।
दिल्ली में 'जश्न- ए आज़ादी' मनाया जा रहा है ॥

पांच साल बाद हो रहे फिर से हसीन वादे ।
हमें दफनानें से पहले, सजाया जा रहा है ॥

मज़लूम से यह कैसा मज़ाक हो रहा है ।
भूखे को पाठ सब्र का पढ़ाया जा रहा है ॥

हो रहा'विदेशी लुटेरों' का खैरमक़दम या।
जनाज़ा ग़रीब का उठाया जा रहा है ॥

मुखोटे औढ़ के बैठे हैं वतन परस्ती के ।
असल चेहरा आवाम से छिपाया जा रहा है ॥

जो दे गए थे 'विदेशी' उन्हे जाने से पहले ।
हमें उसी ही लाठी से डराया जा रहा है ॥

अंधेरा जितना गहरा रहा आसमां पे 'रत्न'।
उजाला उतना ही करीब आ रहा है ॥

         सतीश 'रत्न'

यह कैसी आज़ादी है

सहरा-ही-सहरा है, बस चन्द गलियों में शादाबी है।
यह कैसी फ़िज़ाएं हैं, यह कैसी आज़ादी है ॥

कितना ज़हर भर दिया है बुतो-ओ-अज़ान में ।
बस एक चिंगारी ने बस्ती जलादी है ॥

गए थे हम तो आग बुझाने बसती-ए-फ़साद में।
पर हमें ही मान मुजरिम आदिल नें सज़ा दी है ॥

उसे कया पता क्या शै है आज़ादी, जिसने ।
तमाम ज़िंदगी फुटपाथ पर अपनी बितादी है॥

हाकिम घूम आया है जबसे अमीरों की ख़्वाबगाह ।
ग़रीबी मिट चुकी है देश में, करादी मुनादी है ॥

यह जो मुल्क़ में फैली है अफ़रा-तफ़री हर तरफ ।
ग़रीब हक़ मांगता है, इस की यह वजह दी है ॥

क्यों रहबर  तिलमिला रहा उस पर, ख़ुदा जाने ।
बस 'रत्न' ने तो सच कहने की लोगों को सदा दी है ॥
                              सतीश रत्‍न

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